ऐसा माना जाता है कि विज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी और विरोधाभासी हैं। अक्सर यह आम धारणा लोगों के दिमाग में घर कर जाती है और वे इससे अलग सोचना नहीं चाहते। लेकिन यही सोच दरअसल वैचारिक विकास के रुकने का भी संकेत है। जब हम अध्यात्म को संकीर्णताओं के घेरे में कैद कर देते हैं तब भी और जब हम विज्ञान का उपयोग विध्वंस के लिए करने लगते हैं तब भी, दोनों ही तरीकों से हम विनाश की ओर कदम बढ़ाते हैं तथा विकास से कोसों दूर होते चले जाते हैं।
अध्यात्म तथा विज्ञान दोनों की उत्पत्ति सृजन के मूल मंत्र के साथ हुई है। सृष्टि ने यह विषय बाहरी जगत तथा अंतरात्मा को जोड़ने के उद्देश्य से उपहारस्वरूप मनुष्य को दिए हैं। विज्ञान और अध्यात्म परस्पर शत्रु नहीं मित्र हैं, एक-दूजे के संपूरक हैं।
विज्ञान हमें अध्यात्म से जोड़ता है और अध्यात्म हमें वैज्ञानिक तरीके से सोचने का सामर्थ्य देता है। विज्ञान का आधार है तर्क तथा नई खोज और किसी धर्मग्रंथ में भी इन्हीं बातों को कहा गया है। इसलिए अध्यात्म एवं विज्ञान में एक जैसी समानताएँ और एक जैसे विरोधाभास हैं।
यदि विज्ञान बाहरी सच की खोज है तो अध्यात्म अंतरात्मा के सच को जानने का जरिया है। दोनों ही माध्यमों द्वारा हम इस सच को जानने के लिए ज्ञान के मार्ग पर बढ़ते हैं और उद्देश्य उक्त सच को जानकर, उस पर मनन कर प्राणीमात्र की भलाई में उसका उपयोग करना होता है। दोनों ही जगह ज्ञान का क्षेत्र अनंत है। विज्ञान के जरिए आप प्रकृति को प्रेम करना सीखते हैं। तकनीक या विज्ञान कभी भी प्राणियों को जाति या धर्म के नाम पर बाँटता नहीं, और यही अध्यात्म का असल अर्थ भी है।
जब इन दोनों को मिलाकर समाज के उत्थान हेतु उपयोग में लाया जाए, तभी इनकी असल परिभाषा सार्थक होती है। जिस प्रकार शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए वैज्ञानिक उपायों तथा खोजों की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार मन को स्वस्थ बनाए रखने के लिए अध्यात्मरूपी मनन जरूरी होता है। इन दो मित्रों की मैत्री को अटूट बनाकर सारे समाज में शांति और स्नेह का वातावरण निर्मित किया जा सकता है।
अगर हम भारतीय दृष्टिकोण से देखें तो हम पायेंगे की दर्शन और विज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों का आधार एक है - जिज्ञासा ! मनुष्य के अन्दर एक नैसर्गिक गुण है - जिज्ञासा . वह हर चीज का कारण ढूंढता रहता है. इस ढूँढने की प्रक्रिया दो है।
दर्शन और विज्ञान:
विज्ञान का जन्म दर्शन की कोख से हुआ है । दर्शन एक दृष्टिकोण देता है विज्ञान उस दृष्टिकोण के पुष्टिकरण के लिए कार्यरत होता है ।जब विज्ञान की खोज दर्शन के विश्वास की पुष्टि कर देती है तो दोनों में कोई विरोध नहीं होता , बल्कि दोनों अपनी अपनी अपनी जगह मजबूत हो जाते हैं । इसके विरुद्ध जब विज्ञान अपने प्रयोगों और पूर्व स्थापित नियमों के आधार पर दर्शन को गलत ठहराता है तो स्थिति टकराव की बनती है . सवाल खड़ा हो जाता है श्रेष्ठता का . और ऐसी स्थिति ही विषय होना चाहिए दर्शन शास्त्रियों का , जहाँ हठ त्याग कर उन्हें वास्तविकता तक पहुंचना चाहिए .
सत्य और विश्वास में वही अंतर है जो मनुष्य और परमात्मा में है . जहाँ तक मनुष्य की बुद्धि सक्षम है वहां तक मनुष्य विज्ञान की सहायता से हर सत्य तक पहुँचता है . इस सत्य को सही मानना उसका अधिकार भी है और उचित भी . जो धारणाएं प्रयोगों और उनसे निकलने वाले निर्णयों पर आधारित है वो मान्य होती हैं . उदहारण के लिए चन्द्रमा के धरातल और उसके मंडल पर मनुष्य की प्राप्त की गयी जानकारी . अगर दुनिया का कोई दार्शनिक चन्द्रमा को लेकर अभी भी गपोड़ों में विश्वास करेगा तो वो परिहास का ही कारण होगा .क्योंकि मनुष्य अपने प्रयासों से चन्द्रमा तक पहुँच गया और जो उसने वहां जाकर अनुभव किया वो ही सत्य है , ना कि हजारों वर्षों से चला आ रहा कोई विश्वास।
लेकिन जहाँ विज्ञान की सीमा समाप्त होती है वहां शुरू होती है दर्शन की सीमा जिन प्रश्नों के उत्तर विज्ञान चाह कर भी नहीं निकाल पाता वहां मनुष्य की जिज्ञासु प्रवृति कुछ परिकल्पनाएं करती है . उन परिकल्पनाओं से पैदा होने वाले प्रश्नों का समुचित उत्तर खोजती है. जब वो उत्तर उन परिकल्पनाओं को और पुष्ट करतें हैं तब वो जिज्ञासा अगले प्रश्नों तक पहुँच जाती है . उदहारण के लिए - विज्ञान ने पृथ्वी, चन्द्रमा, सूरज, नक्षत्रों के विषय में बहुत सी जानकारी तो हासिल कर ली - लेकिन अगर पूछें कि इस विशाल ब्रह्माण्ड की गति को नियमबद्ध कौन करता है - तो उसके पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं है . यहाँ आकर दर्शन की परिकल्पना एक विश्वास को जन्म देती है - एक वृहद् शक्ति है जिसके अन्दर सभी लोक लोकान्तरों को नियमबद्ध तरीके से चलाने की क्षमता है - जिसे हम ईश्वर कहतें हैं . विज्ञान के पास इस बात को न मानने के कोई कारण नहीं है , लेकिन अगर वैज्ञानिक हठधर्मिता से इसे मानने से इनकार करे तो उसका कोई अर्थ नहीं . इसे न मानने की स्थिति में उसे इस मौलिक प्रश्न का उत्तर देना पड़ेगा कि ब्रह्माण्ड की रचना और फिर इसका सञ्चालन कौन करता है ?

समानता :
अस्तित्व का रहस्य: दोनों ही ब्रह्मांड और जीवन के रहस्यों को समझने का प्रयास करते हैं।
मानव चेतना: दोनों ही मानव चेतना की प्रकृति और क्षमता को समझने की कोशिश करते हैं।
नैतिकता और मूल्य: दोनों ही नैतिकता और मूल्यों के महत्व को स्वीकार करते हैं।
आश्चर्य और जिज्ञासा: दोनों ही आश्चर्य और जिज्ञासा से प्रेरित होते हैं।
अंतर:
"पद्धति"विज्ञान अनुभवजन्य पद्धति का उपयोग करता है, जिसमें अवलोकन, प्रयोग और डेटा विश्लेषण शामिल हैं। अध्यात्म व्यक्तिगत अनुभव, आस्था और अंतर्ज्ञान पर आधारित है।
"लक्ष्य" विज्ञान भौतिक दुनिया को समझने और उस पर नियंत्रण करने का प्रयास करता है। अध्यात्म मानव आत्मा को समझने और आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने का प्रयास करता है।
"विश्वास" विज्ञान भौतिक दुनिया की वास्तविकता में विश्वास करता है। अध्यात्म भौतिक दुनिया से परे एक उच्च शक्ति या चेतना में विश्वास करता है।
"परिणाम"विज्ञान तकनीकी प्रगति और ज्ञान में वृद्धि लाता है। अध्यात्म आध्यात्मिक विकास और आत्म-ज्ञान में वृद्धि लाता है।
उदाहरण:
"विज्ञान" ब्रह्मांड की उत्पत्ति, ग्रहों की गति, जीवों की उत्क्रांति आदि।
"अध्यात्म" आत्मा की प्रकृति, जीवन का अर्थ, मोक्ष प्राप्ति आदि।
निष्कर्ष:
विज्ञान और अध्यात्म, भिन्न होने के बावजूद, मानव ज्ञान और अनुभव के महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं। वे दोनों ब्रह्मांड और जीवन के रहस्यों को समझने में योगदान करते हैं।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह एक सरल तुलना है। विज्ञान और अध्यात्म दोनों ही जटिल क्षेत्र हैं जिनमें कई अलग-अलग दृष्टिकोण और विचारधाराएं शामिल हैं।